25 मार्च 2008

जोख़िम का दिलासा

कुछ दिन पहले से मेरी एक हफ़्ते की छुट्टियां शुरू हुई है. और इन छुट्टियों में मुझे बार बार कुछ बिलकुल अलग, अजूबा करने की इच्छा हो रही है. दूरदर्शन पर एक कोई विज्ञापन आई थी जिसमें किसी आदमी को बर्फ़ में दिखाया था. देखने के बाद मेरे दिमाग में हिमालय के माउंट एवरेस्ट को चढ़ के दिखाने का मन अटक सा गया है. फिर और सोचा तो लगा कि हिमालय तो फिर भी यहां से दूर है. पास में क्या कुछ और नहीं है, जिसको करके मन को जोख़िम का दिलासा मिले?

सोचा तो याद आया कि दक्षिण अमरीका के पर्वतों की ऊंचाइयों में छिपे इंका लोगों की प्राचीन इमारतों के खंडहर हैं. माचू पीचू. पर थोड़ी जानकारी ढूंढी तो पता चला कि अब माचू पीचू को एक पर्यटन केंद्र बना डाला है. हां, फिर भी जाने में मज़ा तो बहुत आता पर... साधारण पर्यटक बनकर कहीं जाने में मुझे कुछ अखरता है. पर्यटक तो हर कोई बन सकता है. मुझे करना है कुछ बिलकुल अलग, कुछ ऐसा जो इतिहास ने बहुत कम देखा हो. फिर विचार आया कि क्यों ना मैं यहां, कैलिफ़ोर्निया से, माचू पीचू तक साइकल चला के जाऊं? रस्ते में वर्षा-वन, नई भाषा, नए लोग, नया मौसम... सोच सोच कर मुझे बार बार लगा जा रहा है कि काश ऐसा कुछ करना संभव होता...

यह साइकल चलाकर कहीं दूर जाने का विचार कुछ जम सा गया है मेरे दिमाग़ में. सोचता रहा कि और क्या है जो मैं कर सकता हूं तो लगा कि मैंने कभी उत्तरध्रुवीय वृत में भी कदम नहीं रखा हुआ. क्यों ना मैं उत्तर की ओर साइकल चला चला कर उस सफ़ेद फैलाव तक पहुंच जाऊं जहां रात के अंधेरे में डूबते गगन को चमकाती हैं उत्तर ध्रुवप्रभा की रंग-भरी लहरे.. जहां अनंत पवित्रता पर छाता है वह परम सन्नाटा जो मनुष्यों के कानों के लिए कुछ ज़्यादा ही नम्र, कुछ ज़्यादा ही गहरा पड़ जाता है..

काश कि मैं भी उस चकाचौंध में, उस सन्नाटे में, उन खिले-हरे वर्षा-वन कें पेड़ों में और उन पहाड़ों की ऊंचाइयों, अपने आप को खो पाता. काश कि मैं इस साधारणता के सागर से ख़ुद को बचाकार कहीं भाग पाता. काश कि मैं कुछ अनोखा कर पाता.

पर यह "काश काश" बोलकर थोड़े ही कुछ होनेवाला है. कुछ करना पड़ेता है.

और मैं करूंगा, करके दिखाने की हर कोशिश.

कोई टिप्पणी नहीं:

मेरे बारे में

aevynn
कैलिफोर्निया का एक विश्वविद्यालयी छात्र