29 सितंबर 2006

थकान

... इतना काम... अंत दिखाई में ही नहीं आता । विश्वविद्यालयों के आवेदन पत्र... दिन-दिन का गृहकार्य... "नैशनल मिरिट" ( यानि कि राष्ट्रिय योग्यता ) छात्रवृत्ति का लेख...
नींद तो मिलने में ही मुश्किल हो गई है । एक, दो बजे सोना, फ़िर सुभे साड़े पांच, छ्ः बजे जागना ।
काम में डूबते हुए मैं अपने आप के बारे में भी कुछ-कुछ भूल रहा हू । जैसे कि, इस साल, बारहवीं कक्षा के सभी छात्रियों को अब्दकोश में अपने बारे में कुछ कहने का मौका मिलता है । घंटे से ज़्यादा बीत चुका था जब मुझे ध्यान में आया कि मैं हैरी पॉटर में कितनी रुचि है । फ़िर मैंने डंबलडोर की एक उद्धृत चुनी, जो अनुवाद में यह है ः
"चलो, लें कदम बाहर रात में, पीछे उस चंचल, बहकाते जोखिम के ।"
मेरी हिंदी तो इतनी अच्छी है नहीं कि मै उस उद्धृत को पूरी ढंग से अनुवाद कर पाऊं, पर अर्थ तो मेरे अनुवाद में मिल ही जाएगा । और मेरी साहित्य की शिक्षक कहती है कि, चाहो तो बक्वास भी ठीक है, पर रुचि के अनुसार लिखने से वाक्पटुता सुधरती है । शायद धीरे धीरे मेरी हिंदी भी सुधर रही है । अंग्रेज़ी में मुझे लगता है कि सीखने को कम पड़ गया है । नए शब्द तो बहुत ही कम है । पर हिंदी में, हिंदी मे तो इतने खूबसूरत अर्थ के इतने सारे शब्द है कि कुछ श्ब्दों के लिए अनुवाद असंभव है ।
नींद चढ़ रही है । जाकर सो जाता हूं ।

04 सितंबर 2006

अलगाव

मुझे काफ़ी समय से एक बात बहुत परेशान कर रही है । विश्वविद्यालय जब जाना पड़ेगा, तो मुझे अपने सारे दोस्तों से जुदाई सहन नहीं होगी । जीवन में मैंने इतने अच्छे दोस्त कभी नहीं बनाए जितने मैंने यहां उच्चविद्यालय में बनाए । और इस साल जब इन सब से अलग होने का समय आएगा... मैं सच में नहीं सहन कर पाऊंगा । मुझसे आसानी से दोस्त बनते तो हैं नहीं... विश्वविद्यालय जाकर मैं बिलकुल अकेला रह जाऊंगा अगर कोई दोस्त मेरे साथ न आए ।
मेरी एक बहुत करीबी दोस्त है, जिसका नाम मैं अज्ञात रखना चाहूंगा, जो मेरे जैसा सोचती है । उससे भी जुदाई सहन नहीं हो पाएगी । पर उसका जो प्रेमी है, जो मेरा भी दोस्त है, वह कहता है कि वह बिना दुबारा सोचे ही किसी ख्यात विश्वविद्यालय जाने को तैयार है, चाहे हम सब उसके दोस्त उसके साथ जाए या न जाए । कहता है कि वह लोगों के साथ ज़्यादा करीब नहीं होता है और कि वह स्वार्थी और खुदगरज है । बाकी दोस्तों से भी बात करनी चाहिए... काश कि ऐसा सोचने वाला सिर्फ वह अकेला हो ।

दूसरी बात, जो भविष्य से ज़्यादा अतीत से जुड़ी हुई है... मुझे यह स्वार्थ की बात बड़ी अजीब लगी ।
था एक समय जब मुझे एक लड़की पसंद थी । बहुत पसंद थी । पर तब इस लड़के को भी वह पसंद थी । और मेरे भाग्य में असफलता ही लिखी थी, क्योंकि उस लड़की को लड़के पसंद आने लगा ।
इतना दुःख हुआ था मुझे । और अब वह कहता है कि वह लोगों के करीब नहीं होता है ।
हां, मैं जलता हूं । मैं वैसे ज़्यादा जलने वाला हूं नहीं । पर फ़िर भी जलता हूं, उसके सौभाग्य से... कि वह लोगों के करीब आए बिना ही ऐसे संबंध जोड़ पाता है । कि उसके स्वार्थी होते हुए भी वह ऐसे संबंध लड़कियों के साथ जारी रख सकता है । फ़िर से मुझमें वही प्रश्न उठता है ः क्या नैतिक होना ही अच्छा है ?
चलो, छोड़ो इन बीते पल की बातें ।

हो सके तो, जो कोई भी उपर से मेरे मन के विचार सुन रहे हैं, वे इस कल आने वाली घटना का कुछ हल निकालें ।
मैं सच में अलगाव सहन नहीं कर पाऊंगा ।

02 सितंबर 2006

सिद्धांत

कल रात को मेरे पिता ने मुझे एक कहानी बताई ।
एक महिला थी जो अपनी गड़ी में अपने दो बच्चों के साथ घर से निकली हुई थी । सड़क पर बीच रास्ते में एक पिल्ला भाग आया और महिला ने पिल्ले को बचाने के लिए अपनी गाड़ी की गति धीमी की । पीछे से एक बेवकूफ़ आदमी आया, और शीघ्रता से महिला की गाड़ी से टकरा पड़ा । इस दुर्घटना में महिला के दोनो बच्चों की मौथ हो गई ।
यह कहानी मुझे बहुत अखरी । मैं अपने आप को आसानी से उस महिला की जगह देख सकता हूं । अगर मैं किसी पिल्ले को, या फ़िर किसी भी जानवर को, बीच सड़क में देखता, तो ज़रूर ही गाड़ी को धीमी करता । पर अगर ऐसे "सही" काम करने से मैं अपने प्रीय लोगों को संकट में डालता, तो क्या वह काम फ़िर भी "सही" है ? अगर उस महिला जैसे सिद्धांत वाले व्यक्तियों के साथ ऐसी दुर्घटनाएं हो सकती है, तो क्या नैतिक होना ही अच्छा है ?
क्या कठोर विश्च है यह ।

... पाठशाला से काम की कोई कमी नहीं है । उपर से इन विश्वविद्यालय के अन्वेदन पत्र... काश इतना काम नहीं होता । पर मुझे ज्ञान का अन्वेषण वाली कक्षा बहुत रुच रही है । दर्शनशास्त्र कफ़ी दिलचस्प है ।

28 अगस्त 2006

विद्यालय का आरंभ

आज था छुट्टियों का अंतिम दिन, और कल से पाठशाला फ़िर से शुरू । बारहवीं कक्षा, यानि कि विश्वविद्यालय जाने के पहले अंतिम वर्ष । गृहकार्य, विश्वविद्यालय के आवेदन पत्र, वाद्यवृंद की यात्राएं, सुभे जल्दी जागना, सारी झंझटें कल से शुरू । पर... यह सब होते हुए भी, मुझे थोड़ी बहुत उत्तेजना हो रही है । मित्रों से मिलना, पाठशाला में सबसे बड़े होना... और मुझे एक-दो विषयओं में भी रुचि है, विशेषतः संगणक विज्ञान और "ज्ञान का अन्वेषण" । यह "ज्ञान का अन्वेषण" दर्शनशास्त्र और साहित्य की सम्मिलित कक्षा है । मुझे बहुत देर से दर्शनशास्त्र में तो रुचि रही है पर कभी उस विषय पर कक्षा लेने का मौका नहीं आया । और मुझे संगणक में तो रुचि है ही ।
और फ़िर होते हैं हर साल के नाटक... इस साल मेरी एक दोस्त का किसी दूसरी पाठशाला से एक प्रेमी आ रहा है । उससे एक बार मिलकर तो वह मुझे पसंद नहीं आया । पर देखते है... क्या पता कि उसे और अच्छी तरह जानकर वह पसंद आने लगे ? हाहा.. लड़कियां । क्या इस साल मैं, प्रेम का प्रेमी, भावुकता का अनुयायी, इस झंझट से दूर रह पाऊंगा ?
यह तो देखना ही पड़ेगा ।

मेरे बारे में

aevynn
कैलिफोर्निया का एक विश्वविद्यालयी छात्र