27 अक्तूबर 2007

हिंदी विकास

यह शायद कुछ नया तो है नहीं । मैंने खुद ही इस पर बहुत लेख पढ़ें हैं और मैं यहां अमरीका में रहता हूं । पर फिर भी, अपना राय अपने शब्दों में लिखने से अपना ही आराम मिलता है ।

शायद सभी हिंदी बोलने वालों को पता होगा कि भारत में अंग्रेजी का प्रभाव बहुत ताकतदार है और इसके कारण हिंदी का अाधुनिकीकरण कुछ ... रुका-रुका सा है । और मुझे ठीक से समझ में नहीं आता कि भारत अपनी राष्ट्रभाषा की विकास में ज्यादा ध्यान क्यों नहीं देता । बाकी हर देश की भाषाओँ को, खास तौर पर भारत जैसी बड़ी, महत्वपूर्ण देशों की भाषाओँं को विश्व स्तर पर पहुंचा लिया गया है । कोरियाई जैसी भाषाओँ को राष्ट्रभाषा बने हिंदी जितना ही समय हुआ होगा । पर अगर हिंदी और कोरियाई की तुलना की जाएं तो साफ दिखाई देगा कि कोरियाई हिंदी से काफी ज्यादा आधुनिक है । विज्ञान हो, प्रौद्योगिकी हो, चिकित्सा हो ... कोरियाई में किसी भी क्षेत्र में संपूर्ण शिक्षा पाई जा सकती है । हिंदी में तो बुनियादी विषय सिखाने में भी मुश्किल हो जाती है । सच बोलूं तो मुझे अमरीका में रहने के बावजूद इस बात से शर्म आती है । क्यों भारतीय लोगों को एक भारतीय भाषा की जगह एक विदेशी भाषा ज्यादा आसान लगती है ... इस सवाल का जवाब तो मैं सोच भी नहीं सकता । 

अब यह भी सवाल उठता है कि क्या किया जा सकता है । सबसे आसान सुझाव तो यह होता कि सरकार कुछ करें । कानून द्वारा हिंदी का प्रसार बढ़ाएं । लेकिन ... भारतीय राजनीति की मेरी जानकारी कम ही है पर ... मुझे नहीं लगता सरकार कुछ कर सकती है । भ्रष्टाचार, पार्टियां ... समस्याओं का कोई अंत नहीं है । भारत के विकास का मूल है उसकी जनता, उसकी समाज । और हिंदी का विकास भी समाज द्वारा ही संभव है । पर कानूनी परिवर्तन तो फिर भी आसान होते हैं । सामाजिक परिवर्तन में समय बहुत लग सकता है, और तब भी कोई निश्चय नहीं होता ।

और कैसे किया जा सकता है भारतीय समाज को प्रभावित ? खास तौर पर मैं, अमरीका में रहता एक 17 साल का लड़का जिसकी हिंदी वैसे ही कमजोर है ... मैं क्या कर सकता हूं । मेरा मन तो करता है कि मैं हिंदी में चिकित्सा पढ़ूं, जीव-अभियंत्रिका पढ़ूं ... कम से कम अपने Mac OS X  के अंतराफलक को हिंदी में कर सकूं । पर नहीं कर सकता । मैंने अकेले Mac OS X का अनुवाद करना शुरू किया पर ... काम बहुत लंबा है । मैं अकेला नहीं कर सकता । फिर मैं थोड़े दिन के लिए छोड़ देता हूं, जब तक कि मुझे फिर न याद आ जाता कि कितना अच्छा होता अगर मेरा संगणक हिंदी में होता ।

एक दिन ... शायद मुझे ही अपनी हिंदी सुधारके ऐसे काम करने होंगे । आखिरकार, समाज को बदलने के लिए थोड़े ही किसी के पास वक्त होता है । पर फिर भी, मैं चाहता हूं कि मैं एक दिन हिंदी को एक हर ओर से संपूर्ण भाषा के रूप में देख सकूं ।

08 अक्तूबर 2007

वाक्-स्वातंत्र्य

तो आज-काल ज़ैंगा ने "Featured Question" शुरू किया है । रोज, वह एक चुनिंदा सवाल प्रकाशित करते हैं और चिट्ठकों को जवाब देने का मौका मिलता है । मैं सोच रहा हूं कि कभी-कभी अगर कोई रोमांचक सवाल हो जिससे मेरा खून खौले (या फिर सिर्फ़ कोई ऐसा सवाल हो जिसके जवाब में मेरा कुछ कड़े राय हो), तब मैं यहां आकर अपना जवाब लिखूंगा ।

तो आज का सवाल :

"क्या वाक्-स्वातंत्र्य पर कभी भी कोई रोक लगनी चाहिए ? क्यौं ?"


मेरे हिसाब से मेरे राजनीतिक राय "वामपंथी" कहलाए जाते होंगे । स्वतंत्रताओं और अधिकारों के मामले में मुझे नहीं लगता कि सरकार को कभी भी अपने नागरिकों से वाक्-स्वातंत्र्य जैसे मूल्य अधिकार छीनने का कोई हक प्राप्त है । सच तो यह है कि लोकतांत्रिक सरकारों का एक बुनियादी कार्य इन ही अधिकारों की रक्षा करना है ।

पर, अप्रतिबंद्ध वाक्-स्वातंत्र्य पाकर भी शायद समस्याएं नष्ठ नहीं होती । इस दुनिया में, अच्छे लोग तो काफ़ी हैं पर फ़िर भी, बुरे लोगों की कोई कमी तो है नहीं । अप्रतिबंद्ध अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य के अनुसार, भेदभाव करनेवालों को अपनी नफ़रत फ़ैलाने का पूरा अधिकार होगा । इसके अलावा, संयुक्त राज्य में आम दौर पर वाक्-स्वातंत्र्य की रोक लगाने कि लिए एक उदाहरण दिया जाता है कि, क्या लोगों को भरे हुए चलचित्रघर में "आग" चिल्लाने का अधिकार होना चाहिए ? और अमरीकी न्यायिक पूर्ववृ्त्त का कहना है कि, नहीं, ऐसे चिल्लाने से लोगों को खतरे में डालना सही नहीं है ।

सिर्फ़ इस उदाहरण को देखो तो शायद मैं भी इसके नतीजे से सहमत हूं पर ... ऐसी न्यायिक पूर्ववृत्त के अनुसार निर्णय लेने में भी खतरा है । जनता के लिए क्या "खतरा" है, यह फैसला लेने का अधिकार किसको दिया जाएं ? मैं यहां अमरीका में ही ज्यादा पढ़ा-लिखा हूं तो मुझे यहां का ही ज्यादा पता है पर ... अमरीकी इतिहास मे एक समय "Red Scare" कहलाया जाता है । इस समय में वामपंथियों के विरुद्ध, खास तौर पर साम्यवादियों के विरुद्ध, बहुत भेदभाव हुआ । उस समय में वामपंथी राय भी खतरे माने जाते थें । मेरे मानना है कि यह हर दृश्य से गलत है । राजनीतिक राय के खिलाफ़ भेदभाव करने का कोई तुक नहीं बनता । संविदान प्राप्त वाक्-स्वातंत्र्य के पीछे अगर कोई एक मतलब था, तो वह कम से कम राजनीतिक राय की सुरक्षा करना है । नहीं तो सरकारी शक्ति के नीचे हर किसी भिन्नमतावलंबी की आवाज़ पिचक जाएं । इस लिए, मेरा मानना है कि, मनुष्यों की इस सदोष दुनिया की सीमाओं के भीतर, जितनी कड़ी वाक्-स्वातंत्र्य संभव है, उतनी ही कड़ी स्वातंत्र्य को स्थापित करना हमारा आदर्श है ।

27 सितंबर 2007

नई शुरुआतें

... नए लोग, नई जगह ... विश्वविद्यालय आकर मुझे थोड़ा अकेलापन महसूस होने लगा है । उच्चविद्यालय के कुछ दोस्त तो है पर फिर भी, उनसे भी थोड़ा अलगाव महसूस होने लगा है । और मुझे नए दोस्त बनाने आते नहीं । मेरे दो कमरा साथियों में से एक सो दोस्ती हो गई है पर .. फिर भी .. बीच बीच में मुझे लगता है कि काश मैं वापस उच्चविद्यालय जी सकता ।

शायद थोड़ी देर में और अच्छे दोस्त बन जाए । सभी का कहना है कि विश्वविद्यालय ही ज़िंदगी का सबसे मज़ेदार समय होता है ।

14 सितंबर 2007

पुनर्जन्म

मैंने काफ़ी समय से यहां कुछ लिखा नहीं ... 
विद्यालय के काम से व्यस्त होकर यहां लिखने के बारे में बिलकुल भूल ही गया था । छुट्टियों के शुरू होने तक अादत ही छुट गई थी । और अब विश्वविद्यालय शुरू होने का समय अाया तो अचानक मुझे यहां लिखने याद अाता है .. यह दिमाग भी ..

अब लिखना शुरू किया है तो लिखने का कोई विषय भी होना चाहिए । क्या तो लिखूं लेकिन .. 

विश्वविद्यालय जाने के बारे में लिखूं क्या .. यह शायद मेरी ज़िंदगी का सबसे बड़ा परिवर्तन है । घर से बाहर जाकर रहना, मां-बाप से दूर .. कुछ ही महीनों में मैं कानून के अनुसार वयस्क हो जाऊंगा .. मुझे यह बातें सोचकर अजीब लगने लगा है । अभी भी मुझे वयस्क जैसा महसूस नहीं होता । 17 साल का हूं और शायद यह ही मेरे लिए अादर्ष उम्र है । ना ही बच्चा ना ही बालिग .. दोनों के बीच में फसा हुअा जवान .. वैसे .. सोचकर तो मुझे ऐसा भी नहीं लगता कि 18 साल के होना के बाद मुझमें कुछ बदल जाएगा । बस .. कानूनी वयस्क माने जाना .. 
उम्र की बहुत बात हो गई । 

विश्वविद्यालय जाने का सबसे बड़ा बदलाव - दोस्तों को छोड़ना । सच बोलूं तो मेरे ज़्यादा करीबी दोस्त तो मेरे साथ ही जा रहे हैं पर .. एक दोस्त है जो हमसे अलग हो गया है । मेरा शायद सबसे जिगरी दोस्त । उसका विश्वविद्यालय हमारे से पहले शुरू हो गया तो वह अब भी वहां ही है । थोड़ा तो लगता है कि अलग होने के बावजूद भी हम मिलते तो रहेंगे ही पर फिर भी .. उसके ना होने से थोड़ा तो मुझे बुरा लग ही रहा है । चलो .. देखते है .. कैसा चलता है । उसका विश्वविद्यालय इतना दूर तो हैं नहीं कि मिलना भी मुश्किल हो ..

और अाखरी चीज़ । मुझे विश्वविद्यालय में दोस्त ना बना पाने का डर है .. मैं अपने अाप को बार बार बताता रहता हूं कि बिना दोस्तों का तो कोई भी नहीं होता और मेरे तो कुछ उच्चविद्यालय के भी दोस्त मेरे साथ हैं । फिर भी .. 
आखिरकार, दिल के भावों को दिमागी तर्क से थोड़े ही सुलझाया जा सकता है ।

चलो, फिर कभी ।