14 नवंबर 2008

अंकगणित का मूलभूत प्रमेय

आज का प्रमेय! कोशिश करूंगा कि कभी-कभार एक कोई (मेरे बस का) गणितीय प्रमेय और उसकी उपपत्ति प्रकाशित करूं.

प्रमेय: 1 से अधिक हर प्राकृत संख्या n या तो अभाज्य होती है, या फिर वह अद्वितीय अभाज्य संख्याओं के गुणनफल के रूप में लिखी जा सकती है.

उपपत्ति: इस प्रमेय की उपपत्ति को दो भागों मे भाजित किया गया है. पहले भाग मे यह दिखाया जेएगा कि 1 से अधिक हर एक प्राकृत संख्या या तो अभाज्य होती है, या फिर किसी अभाज्य संख्याओं का गुणनफल होती है. दूसरे भाग में दिखाया जाएगा कि यह गुणनफल (क्रमविनिमेय पुनर्विन्यास को छोड़कर) अद्वितीय होता है.

  1. समुच्चय S = {n∈ℕ : n=1, n अभाज्य है, या n अभाज्य संख्याओं का गुणनफल है} को परिभाषित किया जाता है. यह स्पष्ट है कि 1∈S, और क्योंकि 2 अभाज्य है, 2∈S. तो यह मान लीजिए कि {1,2,...n}⊆S, और n+1∉S. तो n+1 अभाज्य नहीं हो सकता; इसका मतलब है कि ∃a,b∈ℕ, जहां a≠1 और b≠1, ताकि n+1 = ab. पर इस समीकरण की संतुष्टि के लिए a और b को n+1 से कम होना पड़ता है. अगर a और b n+1 से कम है, तो a,b∈{1,2,...n}⊆S. परंतु इसका मतलब हुआ कि a और b या तो अभाज्य है, या फिर अभाज्य संख्याओं का गुणनफल है. इस कारण से n+1 को भी अभाज्य संख्याओं का गुणनफल होना पड़ता है: यानि, n+1∈S. फिर, गणितीय आगमन के सिद्धांत के अनुसार, S=ℕ.
  2. विरोधोक्ति की प्रतीक्षा करते, समुच्चय S = {n∈ℕ : अभाज्य संख्याओं p1,p2...pr,q1,q2...qs का अस्तित्व है ताकि n = p1...pr = q1...qs, पर हर pi (1 ≤ i ≤ r) और qj (1 ≤ j ≤ s) की ऐसी जोड़ी नहीं बनाई जा सकती जहां हर जोड़ी की संख्याएं बराबर है} को परिभाषित किया जाता है और यह माना जाता है कि S≠∅. तो फिर, न्यूनतम प्राकृत संख्या सिद्धांत के अनुसार, S का एक न्यूनतम अवयव है, जिसको a कहलाया जाएगा. क्योंकि a∈S, अभाज्य संख्याएं p1,...pr और q1,...qs का अस्तित्व है, जहां a = p1...pr = q1...qs और हर pi और qj की जोड़ी नहीं बनाई जा सकती. पर फिर, किसी ऐसे k∈ℕ (1 ≤ k ≤ s) का अस्तित्व है जहां p1 किसी qk का विभाजन करता है. क्योंकि p1 और qk दोनों अभाज्य है, इसका तात्पर्य है कि p1=qk. फिर, p2...pr = q1...qk-1qk+1...qs. पर अब, p2,...pr का गुणनफल S के न्यूनतम अवयव a से कम है, मतलब कि p2...pr∉S. तो हर pi (2 ≤ i ≤ r) और qj (1 ≤ j < k या k < j ≤ s) की ऐसी जोड़ी बनाई जा सकती है जहां हर जोड़ी की संख्याएं बराबर है. इसका मतलब है कि a∉S, जो कि एक विरोधोक्ति है.
इन दो भागों से यह स्पष्ट है कि 1 से अधिक हर प्राकृत संख्या n या तो अभाज्य होती है, या फिर वह किसी अभाज्य संख्याओं के अद्वितीय गुणनफल के रूप में लिखी जा सकती है. ∎

इस उपपत्ति में दो सिद्धांतों का प्रयोग किया गया है, जिनको मैं अब परिभाषित करूंगा.

गणितीय आगमन का सिद्धांत: यदि S प्राकृत संख्याओं का एक ऐसा समुच्चय है जिसमें 1∈S, और n∈S का तात्पर्य है कि n+1∈S, तो S=ℕ.
  • आगमन का विसतारित सिद्धांत: किसी k∈ℕ के लिए, यदि k∈S और हर प्राकृत संख्या n≥k के लिए n∈S का तात्पर्य है कि n+1∈S, तो {n∈ℕ:n≥k}⊆S.
  • आगमन का दूसरा सिद्धांत: यदि 1∈S, और {1,2,...n}⊆S का तात्पर्य है कि n+1∈S, तो S=ℕ.
न्यूनतम प्राकृत संख्या सिद्धांत: प्राकृत संख्याओं के हर अरिक्त समुच्चय का एक न्यूनतम अवयव होता है.

25 मार्च 2008

जोख़िम का दिलासा

कुछ दिन पहले से मेरी एक हफ़्ते की छुट्टियां शुरू हुई है. और इन छुट्टियों में मुझे बार बार कुछ बिलकुल अलग, अजूबा करने की इच्छा हो रही है. दूरदर्शन पर एक कोई विज्ञापन आई थी जिसमें किसी आदमी को बर्फ़ में दिखाया था. देखने के बाद मेरे दिमाग में हिमालय के माउंट एवरेस्ट को चढ़ के दिखाने का मन अटक सा गया है. फिर और सोचा तो लगा कि हिमालय तो फिर भी यहां से दूर है. पास में क्या कुछ और नहीं है, जिसको करके मन को जोख़िम का दिलासा मिले?

सोचा तो याद आया कि दक्षिण अमरीका के पर्वतों की ऊंचाइयों में छिपे इंका लोगों की प्राचीन इमारतों के खंडहर हैं. माचू पीचू. पर थोड़ी जानकारी ढूंढी तो पता चला कि अब माचू पीचू को एक पर्यटन केंद्र बना डाला है. हां, फिर भी जाने में मज़ा तो बहुत आता पर... साधारण पर्यटक बनकर कहीं जाने में मुझे कुछ अखरता है. पर्यटक तो हर कोई बन सकता है. मुझे करना है कुछ बिलकुल अलग, कुछ ऐसा जो इतिहास ने बहुत कम देखा हो. फिर विचार आया कि क्यों ना मैं यहां, कैलिफ़ोर्निया से, माचू पीचू तक साइकल चला के जाऊं? रस्ते में वर्षा-वन, नई भाषा, नए लोग, नया मौसम... सोच सोच कर मुझे बार बार लगा जा रहा है कि काश ऐसा कुछ करना संभव होता...

यह साइकल चलाकर कहीं दूर जाने का विचार कुछ जम सा गया है मेरे दिमाग़ में. सोचता रहा कि और क्या है जो मैं कर सकता हूं तो लगा कि मैंने कभी उत्तरध्रुवीय वृत में भी कदम नहीं रखा हुआ. क्यों ना मैं उत्तर की ओर साइकल चला चला कर उस सफ़ेद फैलाव तक पहुंच जाऊं जहां रात के अंधेरे में डूबते गगन को चमकाती हैं उत्तर ध्रुवप्रभा की रंग-भरी लहरे.. जहां अनंत पवित्रता पर छाता है वह परम सन्नाटा जो मनुष्यों के कानों के लिए कुछ ज़्यादा ही नम्र, कुछ ज़्यादा ही गहरा पड़ जाता है..

काश कि मैं भी उस चकाचौंध में, उस सन्नाटे में, उन खिले-हरे वर्षा-वन कें पेड़ों में और उन पहाड़ों की ऊंचाइयों, अपने आप को खो पाता. काश कि मैं इस साधारणता के सागर से ख़ुद को बचाकार कहीं भाग पाता. काश कि मैं कुछ अनोखा कर पाता.

पर यह "काश काश" बोलकर थोड़े ही कुछ होनेवाला है. कुछ करना पड़ेता है.

और मैं करूंगा, करके दिखाने की हर कोशिश.

09 फ़रवरी 2008

अठारह

आज मैं अठारह साल का हो गया. यानि, अब कानून के अनुसार भी बच्चा नहीं रहा.

अभी भी जवान तो हूं पर.. कहीं ना कहीं मेरा बचपान छूट गया, बीते समय की धुंध में. चाहूं तो भी नहीं लौट सकता. समय अपनी क्रूर रफ्तार पर आगे बहता चलता है. हां, वह दुख भरे पल भी बीत ही जाते हैं, खो जाते हैं हमारे मन के भूले हुए किनारों में. पर उनके साथ साथ वह सुख के यादगार पल, हँसाते हँसाते रो पड़ाने वाले पल, दोस्तों के साथ पेड़ पर चड़के मिलनी वाली मासूम सी खुशी से भरे सरल से ज्यादा गहरे पल, सब समय की बेरहम लहरों में बह जाते हैं, चाहे जितनी भी कोशिश की हो उनको थामकर अपने पास रखने की. यादें बन जाती है धूल इकट्ठी करने वाली भावनाएं, जिनकी ओर कभी कभी हमारी आंखे पड़ती हैं, बहुत ही आगे बढ़कर, जब तक कि वह भावनाएं मन के कैद में नजाने कब से बंद पड़ी रह चुकी होती हैं. निकालने की कोशिश करने पर भी, उन पुरानी यादों के लिए अब की इस नई दुनिया में कहीं भी जगह नहीं होती. और फिर हमको अपने ही हाथों से अपनी प्यारी यादों को वापस अपने मन के कैद में लौटाना पड़ता है.

कहते हैं कि जन्मदिन एक खुशी मनाने का बहाना होता है. तो चलो, बहाना अपनाकर खुशियां मनाते है. और शायद मैं अभी इन सब ख्यालों के लिए बहुत ही ज्यादा जवान हूं. सिर्फ 18 साल का ही तो हूं. पुरी जिंदगी पड़ी है आगे. क्यों अभी से उम्मीद तोड़ दूं.

तो शुरू करता हूं मैं आज अपनी लड़ाई. आज तक की यादों को समय की बेरहमी से बचाने की लड़ाई. बचपन खोने के दिन, बचपना सम्हालकर रखने की लड़ाई.

02 फ़रवरी 2008

धार्मिक स्वतंत्रता

यह बीबीसी का लेख किसी धर्मांतरण निरोधक कानून के बारे में है. पर हाल में, मुझे धर्म के बारे में इसके पहले से ही कई सारे विचार आ रहे है जिनके बारे में मैं लिखना चाह रहा था. इस लेख के बारे में लिखकर मैं फिर अपने कुछ असंबंधित राय के बारे में भी लिख सकता हूं.

"पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ की कविता श्रीवास्तव कहती हैं, 'हमें लगता है कि राज्य सरकार अपने हिंदूवादी एजेंडे पर काम कर रही है, हमें ऐसा कोई कानून मंजूर नहीं जो किसी की धार्मिक आज़ादी पर प्रहार करता हो. ऐसा करना अनैतिक और मानवाधिकारों के विरुद्ध होगा'."
पूरी कहानी यहां


धर्मांतरण निरोध? मुझे तो पहले यकीन ही नहीं हुआ कि कोई लोकतांत्रिक सरकार ऐसा करने के बारे में सोच भी सकती है. थोड़ा और सोचा तो याद आया कि मैंने पाठशाला में कुछ लेख पड़े थे जिनमें लिखा था कि वैश्वीकरण के जवाब में दुनिया भर राष्ट्रीयता की लहर फैल रही है. पश्चिम को छोड़कर, दुनिया में बाकी सारी जगह लोग अपने मूल धर्म, मूल सिद्धांत, मूल परंपराओं को कसकर थाम रहे हैं ताकि वैश्वीकरण होते होते उनका पश्चिमीकरण भी ना हो जाए. पश्चिम में मैं यूरोप के बारे में तो नहीं जानता पर अमरीका में चरमपंथी ईसाई धर्म की लोकप्रियता भी बढ़ रही है - लोगों का मानना है कि समाज दुराचारी, अधार्मिक होई जा रही है. इस "अधर्मीकरण" (नया शब्द?) को रोकने के लिए, उसे पलटने के लिए, चरमपंथियों के विचार लोकप्रिय हो रहे है. यह बात याद आई तो इस कानून का कारण समझ में आने लगा.

कारण समझ में तो आ गया पर... मैं भी कविता श्रीवास्तव जी से सहमत हूं. मेरा भी मानना है कि धर्म और सरकार के मिलने में कोई सुफल हो ही नहीं सकता. अगर हिंदी में इस विचार का कोई सही नाम है तो माफ करना, पर जब तक कि कोई मुझे वह सही नाम नहीं बताता मैं इस विचार का नाम "धर्म-सरकार अलगाव" रख रहा हूं.

अमरीका में ईसाई धर्म प्रचलित है. मध्यपूर्व में इस्लाम प्रचलित है. उन धर्मों के विश्वास करने वाले लोगों का मानना होता है कि सिर्फ उनका धर्म सही है. उनका मानना है कि बाकी के धार्मिक मार्ग इन्सानियत को नरक पहुंचाएंगे. इन विचारों के अनुसार, धर्म और सरकार के मिलन के पीछे एक धार्मिक कारण है. (मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ऐसे विश्वास ठीक है पर, वह बात बाद में.)

पर.. हिंदू या बौद्ध धर्म हो तो धर्म और सरकार के मिलन के लिए मुझे कोई कारण नहीं दिखाई देता. इन धर्मों का मानना होता है कि कोई भी धर्म हमको मोक्ष या निर्वाण तक पहुंचा सकता है. अगर समाज के प्राथमिक धर्म में ऐसा विश्वास हो तो.. धार्मिक आज़ादियों पर प्रतिबंधों का चर्चा भी कैसे उठ सकता है. धर्म के अनुसार, धर्म-सरकार अलगाव की आवश्यकता स्पष्ट है. उनके मिलन का कोई धार्मिक कारण है ही नहीं. इस लिए उपर्युक्त लेख की कहानी जैसी कहानियों को सुनकर मेरे मन में अविश्वास के बाद गुस्सा उठता है. पहले तो "हिंदूवादी" कहलाया जाना, और फिर हिंदू धर्म के एक बुनियादी विश्वास का अपमान करके लोगों की धार्मिक आज़ादियों पर प्रतिबंध लगाना..

हिंदू या बौद्ध धर्म जैसे सहनशील धर्मों के नाम धार्मिक आज़ादियों पर प्रतिबंध लगाना तो बकवास की एक नई हद पार कर जाता है, पर ईसाई धर्म जैसे धर्मों के नाम भी ऐसा करना ठीक नहीं है. समाज की प्रगति केवल विचारों की अप्रतिबंधित धार द्वारा संभव है. मैंने वाक-स्वतंत्रता के बारे में एक प्रविष्टि लिखी हुई है पर.. धार्मिक स्वतंत्रता भी उसही तरह आवश्यक है. अगर सरकार अपने नागरिकों पर जोर डालकर उनको किसी विचार में विश्वास करवाए तो वह आवश्यक विचारों की धार पर प्रतिबंध आ जाता है और समाज की प्रगति टल जाती है.

मेरा मानना है कि सिर्फ एक धर्मनिरपेक्ष सरकार सफल हो सकती है. किसी भी धर्म का सरकार से मिलने से समाज का नुकसान होगा, चाहे वह धर्म मेरा भी क्यों ना हो.

मेरी इस प्रविष्टि से शायद यह सवाल या यह ख्याल उठता होगा कि क्या मैं हिंदू हूं. इस सवाल का उत्तर कुछ लंबा और उलझनदार सा है. तो वह उत्तर किसी और दिन के लिए छोड़ देता हूं. अभी के लिए मैं बस इतना ही कहूंगा कि मैं हिंदू घराने में पला-बढ़ा हूं तो मुझपर हिंदू धर्म का प्रभाव तो स्पष्ट है, पर धर्म के बारे में मैंने अपने "धार्मिक" विचार काफी हद तक खुद रचे है और मुझे लगता है कि वह विचार कुछ अनोखे से है.

01 फ़रवरी 2008

बेजवाब

लोग क्या क्या करते हैं...


पूर्वी जर्मनी की एक ट्रैवेल एजेंसी ने दुनिया की पहली ऐसी हवाई उड़ान का आयोजन किया है जिसमें सभी लोग कपड़े उतार कर शामिल होंगे.
पूरी कहानी यहां


मेरे पास शब्द ही नहीं हैं.

31 जनवरी 2008

नींद की अनंत कमी

मैं अभी अपनी संगणक विज्ञान की कक्षा में बैठकर ऊब रहा हूं.

मुझे कुछ दिन पहले एहसास हुआ कि मैं अपने आप को पूरी तरह कभी भी सोने नहीं देता हूं. सुबह कक्षा हो तो उठना पड़ता है - उन दिनों मेरी ज्यादा से ज्यादा 6-7 घंटे की नींद होती होगी. लेकिन बाकी छात्रों की भी इतनी ही नींद होती होगी, तो उस हिसाब से मैं कुछ अलग नहीं हूं. पर सप्ताहांत को भी, प्रबोधन घड़ी लगाकर मैं अपने आप को 12 बजे से पहले उठा देता हूं. तब भी 7-8 घंटे की नींद से ज्यादा नहीं होती है. वेशेषज्ञों का कहना है कि मेरी उम्र के लोगों को 9 घंटे की नींद की जरूरत होती है, जो कभी मेरे लिए पूरी तो होती है नहीं. यह मेरी नींद की अनंत कमी... पता नहीं मेरी सेहत पर कैसा प्रभाव करेगी.

ऊकर अब मुझे कक्षा में नींद आ रही है. सोते सोते मुझे प्राध्यापक का वयाख्यान गाने जैसा सुनाई दे रहा है...

29 जनवरी 2008

पुनः पुनर्जन्म?

मैं पहले भी यहां लिखने की आदत बनाने की कोशिश कर चुका हूं.. पर कर नहीं पाया. अब फिर से कोशिश करने लगा हूं. शायद इस बार आदत टिकी रहे?

आदत बनाने की कोशिश में मैंने इस चिट्ठे का प्रारूप बदल डाला. सोचा कि अगर मुझे चिट्ठा देखना पसंद आए, तो शायद मेरा कुछ ना कुछ लिखने का भी मन करें.

चलो अभी के लिए इतना ही काफी हैं. आज-कल मेरी कुछ मध्यावधि परीक्षाएं चल रही हैं पर अगर आज रात को समय मिलता है तो कुछ और लिखूंगा.

मेरे बारे में

aevynn
कैलिफोर्निया का एक विश्वविद्यालयी छात्र